अश्क-ए-महबूब हूँ बिखरने से
ना रोके कोई
गर बिखर जाऊँ तो दामन में ना
समेटे कोई।
काँप उठते हैं यह सोच के सन्नाटे
भी अक्सर...
लेकर मेरा नाम मुझ को ना पुकारे
कोई... ।
जिस तरह ख़्वाब मेरे टुकड़ों
में बिखर गए हैं
इस कदर टूट के अब कभी ना बिखरे
कोई।
एक मुद्दत से कोई दस्तक नहीं
है दरवाजों पर
किस के इंतज़ार का दीया अब दिल
में जलाए कोई।
मैं तो उस दिन को सोच के खौफजदा
हूँ अब तक
ख़ुश्क फूलों की तरह किताबों
में ना रह जाए कोई।
© 'रश्मि
अभय' (26.11.2014)
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