हाँ...मैं ‘रश्मि’ हूँ...
सुबह से शाम तक
ख़ुद जलकर
रौशनी बिखेरती हुई
और फिर धीरे धीरे
शीतल हो जाना मेरी आदत है
ऊँचाई नभ सी
मगर मेरे लिये
जल-थल भी बराबर
फूलों पर पाँव मेरे
पंक से भी मेरी यारी
परियों सा जीवन मेरा
चाहती हूँ सबको सुनहरा
जननी से मिले संस्कार
बस बाँट रही हूँ
हर दुःख-सुख के साथ...
कितनी ही बाधाओं को पार किया मैंने
पर एक पल भी नहीं भूली अपना वजूद
मैं हूँ...यहीं हूँ...
काली घटाएँ कब तक
रोकेंगी मेरी राह
कितने ही तूफान आये
और कितनी रातें
मगर हर सुबह का अहसास
हुआ है मेरी चमक के साथ
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