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Sunday, January 29, 2017

गुज़रा साल


गुज़रा साल कुछ ऐसे आया
जैसे सोच की कड़ी
बीच से टूट गई हो
जैसे समझने की शक्ति
खत्म होती जा रही हो
एक चुभन सी हो गई हो
आस्था की आँखों में
नींद के हाथों से कोई खूबसूरत
सपना टूट गया हो....
गुज़रा साल कुछ ऐसे हीं आया

जैसे दिल के किसी कोने में
कोई नश्तर चुभ गया हो
जैसे विश्वास के पन्नो पर
स्याही बिखर गई हो
जैसे समय के होठों से
साँसे निकल गई हो
और मेरी चीख होठों से हीं नहीं
आँखों से भी निकली हो
गुज़रा साल कुछ ऐसा हीं आया

जैसे मेरे बचपन की सहेली ने
भीड़ में मुझे अकेला छोड़ दिया हो
जैसे घर के संस्कारों की कड़ी
अचानक हीं टूट गई हो
इतिहास के नगीनों से
कोई अनमोल नगीना खो गया हो
और शमशान की जमीं भी
दर्द से फट पड़ी हो....
हाँ...गुज़रा साल कुछ ऐसा हीं आया।।



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