ना कोई खोज ना खबर...
ज़िंदगी जैसे गुमशुदा हुई जाती है
हालात तो यूं भी उल्टी राह पर थी...
मगर अब सभी खफ़ा हुए जाते हैं।
ना जाने कैसी ये घड़ी आई है...
अपने भी बेगाने बने हैं...
नेकी भी बनी रुसवाई है...
जो थे दोस्त जिगर के टुकड़े...
वो भी दुश्मन बन गए हैं...
हर तरफ अंधेरा है...
हर तरफ एक खाई है...
सावन की झड़ी भी अब
बेगानी सी लगती है
ज़्युन मेरी हालात पर
गम की घटा छाई है
मौसम नें यूं करवट बदली...
जैसे सावन में सूखा आ गया...
अब ना कोई झूला डाले...
ना हीं कोयल गायी है।
सर्वाधिकार सुरक्षित--- रश्मि अभय
आप इसे मेरे ब्लॉग www.muk-abhivyakti.blogspot पर पढ़ सकते हैं।
Behtrin lekh
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