Search This Blog

Sunday, December 30, 2012

हे पुरषोतम.....


मैं तो स्त्री थी,बंधी हुई थी अपने बंधनों में
मगर हे ‘देव’ तुम तो पुरुष थे
इस पुरुषप्रधान समाज में
तुम्हारी कौन सी मजबूरियां थी
अपने वचनों से बंधी मैं
मैंने कभी तुमसे कोई प्रश्न नहीं किया
चलती रही उन कंटक राहों पर
जिस पर तुम चलते रहे
मैं तो फिर भी तुम्हारे साथ थी
मगर सोचो ‘उर्मिला’ के उस दर्द को जिसने तुम्हारे प्रति
भातृ प्रेम को को देखकर
लक्ष्मण को तुम्हारे साथ कर दिया
हे रघुनंदन तुम स्त्री मन कि पीड़ा को क्या समझो
उसने तो महल में भी रहकर
चौदह साल का वनवास काटा
तुम तो पुरुष हो न...कैसे समझाऊँ हृदय की पीड़ा
जब मैं लंका से लौटी तो तुमने ली मेरी अग्निपरीक्षा
ये तुम्हारा अविश्वास था या पुरुष होने का अहम
हे 'देव' तुम भी तो मुझसे दूर थे
फिर तुमने क्यूँ नहीं दी अग्निपरीक्षा ??
कहते हैं...’रघुकुल रीत सदा चली आई
प्राण जाए पर वचन ना जाये’….
वचन तो तुमने भी लिए थे कठिन से कठिन
मार्ग पर साथ निभाने का....
मगर कितने कमजोर थे तुम
या पुरुषोतम कहलाना चाहते थे
तभी तो एक धोबी के कहने पर
अपनी पत्नी को वनवास दे दिया
वो भी उस वक़्त जब उसके अंदर तुम्हारे
रघुकुल का अंश पल रहा था....
हे ‘देव’ मैंने तुम्हारे कुल को वंश तो दे दिया
मगर मैं भूमि पुत्री ‘सीता’ पुनः भूमि में समा रही हूँ
इस श्राप के साथ की तुम मेरे नाम के बिना
हमेशा अधूरे रहोगे...........

.’रश्मि अभय’

***देव तुम से तुम तक***
 

No comments:

Post a Comment