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Wednesday, February 6, 2013

चौराहा

अचानक चलते चलते ठहर गई हूँ
कितने यकीन के साथ घर की 
दहलीज़ को पार किया था मैंने
सबकी नाराजगी को नज़रअंदाज़ करके
सिर्फ और सिर्फ तुम पर विश्वास किया 
क्षण भर में भूल गई मैं माँ के आँसू
बाबा की खामोशी और भाई की दलीलों को
जन्म से लेकर अब तक के सारे रिश्ते
सिर्फ खोखले नज़र आए सिवा तुम्हारे...
दीवानगी में खुद को रुसवा कर बैठी
सुनो जब तुम मुझे अपने घर का पता
बता रहे थे,तभी मुझे समझ जाना था
कि तुम्हारे अंदर सच्चाई नहीं है
साथ निभाना था तो घर साथ लेकर चलते
अपनी जिंदगी में मेरी पहचान बताते
तुमने तो सिर्फ ये कहा था कि ‘रश्मि’
जब तुम मेरे शहर पहुंचोगी तो एक चौराहा मिलेगा
वहाँ से मुड़ जाना...यहाँ तो बहुत सारे चौराहे हैं
मुझे किस चौराहे से किस तरफ मुड़ना होगा
ना तुमने बताया...ना मैंने पूछा
सच बौरा गई थी मैं जो तुम्हारे कलुषित हृदय को
समझ नहीं पाई...आज इस चौराहे पर खड़ी
मुझे सिर्फ एक हीं रास्ता दिख रहा है
जो मेरे बाबा के घर तक जाता है...हाँ
मेरे माँ बाबा हीं ऐसे हैं जो मुझसे
बिना कोई सवाल किए हृदय से लगा लेंगे
क्यूंकि मैं उनके जिगर का वो टुकड़ा हूँ
जिसे तुमने पत्थर समझ कर चौराहे पर फेंक दिया।

‘रश्मि अभय’ (५ फरवरी २०१३,४:०० पी एम)

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