बहुत कुछ कहना चाहती हूँ तुमसे
मगर कह नही पाती...
कहना चाहती हूँ कि गुज़रते वक़्त की तरह
एक दिन यूँ हीं गुज़र जाऊँगी
थोड़ी सी बची भी तो सिर्फ
तुम्हारी यादों में बच जाऊँगी
कतरों में, टुकड़ों में, किश्तों में
बस यूँ हीं फ़िज़ाओं में...
खुशबू की तरह बिखर जाऊँगी...
सुनो बिन कहे एक रोज़
खामोश चली जाऊँगी
तुम्हारे मन की देहरी के पार
जो देह से मुक्त है कहीं
तुम्हारी दुनियाँ से दूर...
बचूँगी तो सिर्फ..तुम्हारे मन के अंधेरो में
और किसी दिए की तरह जगमगाऊंगी
नही कोई दिक्कत होगी ज़माने से
ना फिक्र होगी तानों की
चुपचाप अकेली यूँ हीं खानाबदोश से
गठरी समेटे निकल जाऊँगी।
सुनो ना...बहुत कुछ है
जो तुमसे कहना चाहती हूँ,
मगर कह नही पाती।।
मगर कह नही पाती...
कहना चाहती हूँ कि गुज़रते वक़्त की तरह
एक दिन यूँ हीं गुज़र जाऊँगी
थोड़ी सी बची भी तो सिर्फ
तुम्हारी यादों में बच जाऊँगी
कतरों में, टुकड़ों में, किश्तों में
बस यूँ हीं फ़िज़ाओं में...
खुशबू की तरह बिखर जाऊँगी...
सुनो बिन कहे एक रोज़
खामोश चली जाऊँगी
तुम्हारे मन की देहरी के पार
जो देह से मुक्त है कहीं
तुम्हारी दुनियाँ से दूर...
बचूँगी तो सिर्फ..तुम्हारे मन के अंधेरो में
और किसी दिए की तरह जगमगाऊंगी
नही कोई दिक्कत होगी ज़माने से
ना फिक्र होगी तानों की
चुपचाप अकेली यूँ हीं खानाबदोश से
गठरी समेटे निकल जाऊँगी।
सुनो ना...बहुत कुछ है
जो तुमसे कहना चाहती हूँ,
मगर कह नही पाती।।
'रश्मि'