Search This Blog

Sunday, December 30, 2012

विश्वास

सुनो ‘देव’ मैंने कभी तुमसे कुछ नहीं छुपाया
क्यूंकि मैं ने यही जाना है कि
रिश्तों कि बुनियाद विश्वास पर
खड़ी होती है...
मैंने तुम्हें टूटकर चाहा
मगर तब तुम्हें मेरी चाहत का
कोई एहसास नहीं रहा
सुनो मैं जानती हूँ कि आज तुम
फिर लौटना चाहते हो...वो भी क्यूँ
क्यूंकि जिसके लिए तुमने मुझे छोड़ा था
वो आज तुम्हें छोड़ गई
आज मैं भी एक सच बयान करती हूँ
और वो ये कि अब मैं तुमसे प्यार नही करती
और ना हीं मेरे अंदर कोई सम्मान है तुम्हारे लिए
इसलिए नहीं कि मेरी ज़िंदगी में कोई और है
इसलिए कि मैं कोई वस्तु नहीं
एक इंसान हूँ...तुम्हारी पत्नी
तुम्हारी वो अर्द्धांगनी जिसने तुम्हारी खुशी के लिए
तुम्हारी वेवफ़ाई का जहर भी पिया
मगर कभी किसी से अपना दर्द बयान नहीं किया
भिंगी पलकें मुसकुराते होंठ लेकर
अपने कर्तव्यों का निर्वाह करती रही
मगर तुमने...???
तुमने मुझे कभी पत्नी का सम्मान नहीं दिया
‘देव’ तुमने जितना हीं मुझे तोड़ा
मैं मजबूत होती गई....
जाओ ‘देव’ किसी और की तलाश करो
मेरे दिल के और इस घर के दरवाजे
ना जाने कब के तुम्हारे लिए बंद हो चुके हैं....!!!

'देव तुम से तुम तक
'
'रश्मि अभय'

परिंदे

कितना सुकून है इन परिंदों के साथ
जी करता है उम्र गुज़र जाए
इनके पंखों के साये में
मैं इनसे अपने दिल की 
हर बात करती हूँ
और ये मेरे प्यारे दोस्त
बहुत हीं धैर्य के साथ
मेरी बातें सुनते हैं
मैं अकेली कहाँ हूँ इस जहां में
ये मेरे संगी साथी हैं
जब भी ये खुश होते हैं
पंखों को खोल कर
आसमान की बुलंदियों को छु आते हैं
और फिर लौट कर
मेरे कंधों पर बैठ मेरे कानों में
सरगोशी करते हैं...'रश्मि'
उड़ान पंखों से नहीं
हौसलों से होती है
तुम बस पहल करो
कारवां बनता जाएगा 

हे पुरषोतम.....


मैं तो स्त्री थी,बंधी हुई थी अपने बंधनों में
मगर हे ‘देव’ तुम तो पुरुष थे
इस पुरुषप्रधान समाज में
तुम्हारी कौन सी मजबूरियां थी
अपने वचनों से बंधी मैं
मैंने कभी तुमसे कोई प्रश्न नहीं किया
चलती रही उन कंटक राहों पर
जिस पर तुम चलते रहे
मैं तो फिर भी तुम्हारे साथ थी
मगर सोचो ‘उर्मिला’ के उस दर्द को जिसने तुम्हारे प्रति
भातृ प्रेम को को देखकर
लक्ष्मण को तुम्हारे साथ कर दिया
हे रघुनंदन तुम स्त्री मन कि पीड़ा को क्या समझो
उसने तो महल में भी रहकर
चौदह साल का वनवास काटा
तुम तो पुरुष हो न...कैसे समझाऊँ हृदय की पीड़ा
जब मैं लंका से लौटी तो तुमने ली मेरी अग्निपरीक्षा
ये तुम्हारा अविश्वास था या पुरुष होने का अहम
हे 'देव' तुम भी तो मुझसे दूर थे
फिर तुमने क्यूँ नहीं दी अग्निपरीक्षा ??
कहते हैं...’रघुकुल रीत सदा चली आई
प्राण जाए पर वचन ना जाये’….
वचन तो तुमने भी लिए थे कठिन से कठिन
मार्ग पर साथ निभाने का....
मगर कितने कमजोर थे तुम
या पुरुषोतम कहलाना चाहते थे
तभी तो एक धोबी के कहने पर
अपनी पत्नी को वनवास दे दिया
वो भी उस वक़्त जब उसके अंदर तुम्हारे
रघुकुल का अंश पल रहा था....
हे ‘देव’ मैंने तुम्हारे कुल को वंश तो दे दिया
मगर मैं भूमि पुत्री ‘सीता’ पुनः भूमि में समा रही हूँ
इस श्राप के साथ की तुम मेरे नाम के बिना
हमेशा अधूरे रहोगे...........

.’रश्मि अभय’

***देव तुम से तुम तक***